
दो दशकों से अलग-अलग राजनीतिक खेमों में तलवारें लहराते उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे आखिरकार एक मंच पर साथ आ गए। संजय राउत ने इसे “महाराष्ट्र का त्योहार” बताया और राज ठाकरे ने फडणवीस को “मैचमेकर” तक कह डाला।
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इतिहास साक्षी है कि जब ठाकरे बंधु एक साथ आए हों, तो राजनीति में जरूर कोई मसालेदार मोड़ आता है—और इस बार वजह बनी हिंदी भाषा।
संजय राउत बोले: “दिल है कि मानता नहीं”
संजय राउत ने कहा, “हम सब बहुत खुश हैं। ये महाराष्ट्र के लिए एक जश्न है।” उन्होंने इसे मराठी मानुष के लिए “नई ललकार” बताया। राउत ने लगभग “बालासाहेब स्टाइल” में भावनात्मक कार्ड खेला, जिसे महाराष्ट्र की राजनीति बहुत अच्छे से समझती है।
रामदास अठावले का पंच: ‘कब तक चलेगा ये मिलन?’
अठावले ने सीधे-सीधे सवाल दागा: “जब बाला साहेब थे तब साथ नहीं रह पाए, अब रहेंगे?”
उनकी बातों से ऐसा लगा मानो कोई सीरियल का सस्पेंस एपिसोड शुरू हो चुका हो—“आगे क्या होगा?”
हिंदी बनाम मराठी: भाषाओं की मॉक फाइट
राज ठाकरे बोले कि यह “तीन भाषा फॉर्मूला” मुंबई को महाराष्ट्र से अलग करने की साज़िश थी। और फिर दिया गया सबसे चर्चित तर्क:
“बिहार, यूपी और राजस्थान में तीसरी भाषा कौन सी है? पहले वहां लागू करो!”
यानि भाषाओं की इस लड़ाई में हिंदी बेचारे पप्पू की तरह पिट रही है—ना घर की रही, ना घाट की।
क्या वाकई बदल रहा है ठाकरे युग?
राज ठाकरे का बयान—“मेरा महाराष्ट्र किसी भी राजनीति से बड़ा है”—एक आदर्श लगता है, लेकिन लोग जानते हैं कि यह राजनीति ही है जो मंच साझा करवाती है, और मंच गिरवाती भी है।
फडणवीस को उन्होंने “बालासाहेब से बड़ा जोड़ने वाला” बता दिया—इस बयान पर बालासाहेब अगर होते तो शायद चौंकते जरूर।
भाषाई सियासत में नया अध्याय
राजनीति अब सिर्फ सीटों की नहीं, स्क्रिप्ट की भी लड़ाई है। और जब मंच पर एक जैसे चेहरे हों, तो दर्शकों को भी समझ नहीं आता कि विलेन कौन है और हीरो कौन।
“मराठी बनाम हिंदी” पर महाराष्ट्र की राजनीति गर्म है। लेकिन ठाकरे बंधुओं का मंच साझा करना क्या सिर्फ भाषाई मुद्दा है या 2029 की तैयारी की शुरुआत? जनता देख रही है… और मीम्स भी बना रही है।
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